Panchayat Season 4 Review: “पंचायत” सीरीज का नाम सुनते ही जेहन में गांव की सोंधी मिट्टी की खुशबू, प्रधान जी की मासूम सियासत, सचिव जी की भोली चतुराई और विकास-प्रह्लाद चा की चौकड़ी का ह्यूमर याद आता है।
लेकिन इस बार ‘Panchayat Season 4 ने जैसे अपने ही बनाए मानकों को तोड़ दिया है। इस बार कहानी कमज़ोर है, भावनाएं बिखरी हैं और किरदार भी कहीं न कहीं असहाय से लगते हैं।
फुलेरा लौटे, लेकिन वो फुलेरा नहीं रहा
मैं भी बीते कुछ दिनों से अपने गांव में हूं, यानि अपने फुलेरा में। इस चौथे सीजन में गांव की वही झलक देखने की उम्मीद थी, जो पहले तीन सीजन में दिल में घर कर गई थी। लेकिन अफसोस! इस बार की कहानी में न वो बिजली की आंख मिचौली है, न वो नल की टोंटी चोरी का हंगामा और न ही दिशा मैदान के बहाने गुम हुई चाभियों का तमाशा।
गांव की राजनीति जरूर दिखाई गई है, लेकिन उसका प्रस्तुतीकरण इतना सपाट और पूर्वानुमेय हो गया है कि मज़ा ही नहीं आता। ग्राम प्रधान, खंड विकास अधिकारी, मनरेगा, स्कूलों का विलय – ये सब विषय ज्यों के त्यों पटक दिए गए हैं, लेकिन उनकी बुनावट और गहराई गायब है। अब लगता है कि Panchayat जैसे ब्रांड को बस खींचा जा रहा है, बिना इस सोच के कि दर्शक अब भी उसी संवेदना और व्यंग्य की उम्मीद लेकर आते हैं।
क्या हुआ तीसरे सीजन की क्लाइमेक्स का?
अगर आपने तीसरा सीजन ध्यान से देखा था, तो आपके मन में भी एक सवाल रह गया होगा – गोली किसने चलाई? ये सस्पेंस पूरे गांव और दर्शकों के मन में था। साथ ही विधायक जी, उनका घोड़ा और मनोज तिवारी का गाना – इन सबका कोई ठोस निष्कर्ष या फॉलोअप इस चौथे सीजन में नहीं मिला।
Panchayat Season 4 एक अलग ही मोड़ पर चल पड़ा है। नाम फुलेरा का जरूर है, लेकिन फीलिंग जैसे खो सी गई है। ये बिलकुल वैसा है जैसे बारिश में सूज गया लकड़ी का दरवाजा – उसे बंद करने के लिए जितना जोर लगाओ, उतनी ज्यादा चरमराहट सुनाई देती है। यही चरमराहट इस पूरे सीजन में महसूस होती है।
शानदार कलाकार लेकिन लाचार कहानी
जितेंद्र कुमार, नीना गुप्ता, रघुवीर यादव, फैसल मलिक, दुर्गेश कुमार, चंदन रॉय, सुनीता राजवार, पंकज झा और सान्विका जैसे दमदार कलाकारों की मौजूदगी के बावजूद इस बार ‘पंचायत’ दिल को छू नहीं पाई।
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इसका कारण साफ है – कहानी का ढीला ढांचा। न व्यंग्य का वो मजा है, न सामाजिक ताने-बाने की बुनावट। इस बार फोकस गांव के चुनावों पर है – मंजू देवी बनाम क्रांति देवी। लेकिन असली लड़ाई उनके पतियों के बीच है, जो एक-दूसरे को हराने के लिए नीचता की हर हद तक जाते हैं।
शुरुआत में कुछ राजनीतिक व्यंग्य आपको गुदगुदा सकते हैं, लेकिन जल्दी ही ये भी बोझिल लगने लगता है। ऐसा लगता है मानो पंचायत को खींचने के लिए जबरिया प्लॉट गढ़े गए हैं।
चौकड़ी की आत्मा गायब
Panchayat Season 4 की आत्मा उस चौकड़ी में थी – सचिव जी, विकास, प्रह्लाद चा और प्रधान जी। उनकी आपसी नोकझोंक, भावनात्मक जुड़ाव और संवादों की मिठास ने ही इस सीरीज को पहले एक अद्भुत ऊंचाई दी थी।
लेकिन इस बार सब बिखरा हुआ है। प्रह्लाद और विकास का रिश्ता सतही रह गया है, सचिव जी अपनी ही कहानी में खोए रहते हैं, और प्रधान जी की कॉमिक टाइमिंग खो चुकी है। वो मजा ही नहीं रहा।
नीना गुप्ता और सुनीता राजवार के बीच चुनावी मुकाबला है जरूर, लेकिन दोनों कलाकारों के बीच कोई “मुठभेड़” वाला मोमेंट ही नहीं बनता। जैसे दो टीमों का मैच हो और दोनों मैदान में आने से बच रही हों।
कुछ चमकदार लम्हे भी
हालांकि रघुवीर यादव और नीना गुप्ता ने इस बार भी अपने शानदार अभिनय से कहानी को डूबने नहीं दिया। रघुवीर यादव की आंखें और बॉडी लैंग्वेज ही काफी है सीन को जीवंत करने के लिए। नीना गुप्ता अपने किरदार में पूरी ईमानदारी से उतरती हैं।
लेकिन चौकाने वाली बात ये रही कि इस बार दुर्गेश कुमार, जिन्होंने पंचायत में मजदूर भगत सिंह का किरदार निभाया है, वो जितेंद्र कुमार से भी ज्यादा प्रभावी दिखे।
सान्विका का मासूम चेहरा अभी भी उम्मीदें जगाता है, लेकिन उनकी कहानी को विस्तार नहीं मिल पा रहा, शायद कॉन्ट्रैक्ट की बंदिशों की वजह से।
Panchayat Season 4 2/5 स्टार क्यों?
‘पंचायत सीजन 4’ सिर्फ कलाकारों की अदायगी के भरोसे टिकता है। लिखावट कमजोर है, निर्देशन इस बार लक्ष्यविहीन है और निर्माण टीम जैसे अगले सीजन की मंजूरी मिलने के बाद आराम से बैठ गई हो।
जब ओटीटी प्लेटफॉर्म पहले ही पांचवें सीजन का बजट पास कर दे, तो चौथे सीजन के प्रति गंभीरता कम हो जाती है – और इस बार यही महसूस होता है।
अंतिम बात
‘Panchayat Season 4’ कोई आम वेब सीरीज नहीं है। यह गांव, ग्रामीण राजनीति और भारत की मूल जड़ों को लेकर एक खूबसूरत कल्पना रही है। लेकिन इस बार चौथा सीजन जैसे उस कल्पना पर ही बोझ बन गया है।
अब सवाल यह है कि क्या पांचवां सीजन इस ब्रांड को फिर से वो पुराना सम्मान दिला पाएगा? या ‘पंचायत’ भी उन हिट कहानियों में शामिल हो जाएगी, जो अंततः थक कर गिर जाती हैं?
रेटिंग: ⭐⭐☆☆☆ (2/5)
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